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मैं इमरान प्रतापगढ़ी इन पंक्तियों के साथ अपनी बात प्रारंभ करता हूं…
सुना था कि बेहद सुनहरी है दिल्ली,
समंदर सी खामोश गहरी है दिल्ली।
मगर एक माँ की सदा सुन ना पाई,
तो लगता है गूंगी है बहरी है दिल्ली।।
वो आंखों में अश्कों का दरिया समेटे,
वो उम्मीद का एक नजरिया समेटे।
यहां कह रही है वहां कह रही है,
तड़प कर के ये एक माँ कह रही है।।
नहीं पूछता है कोई हाल मेरा,
कोई ला के दे दे मुझे लाल मेरा।।
इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई हिन्दू है या मुसलमान। क्या मुस्लिम होने से इंसान की कीमत कम हो जाती है? यकिन मानिये एक मुस्लिम माँ भी अपने बच्चे के लिए वही तड़पन महसूस करती है, जो मेरी माँ मेरे अभाव में करती है।
देश की राजधानी के केन्द्रीय विश्वविद्यालय के एक मुस्लिम छात्र को कुछ छात्र कथित रूप से पीटते हैं और रात में वह गायब भी हो जाता है। वह भी वहां से, जहां से जोर से चीख देने पर भी आवाज भारत के गृहमंत्री के कानों तक पहुंच सकती है। मैं भी देश का नागरिक होने के नाते माननीय राजनाथ सिंह जी से यह सवाल पूछना चाहता हूं कि मान्यवर मैं कैसे उम्मीद करूं आपसे या आप कैसे आश्वस्त करेंगे कि भारतीय उपमहाद्वीप के हर नागरिक को आवश्यक सुरक्षा मुहैया करा पायेंगे आप, जबकि आपके दरवाजे पर सिसकते हुए नजीब की सिसकियां आप के कानों तक नहीं पहुंची।
मैं एक सवाल करना चाहता हूं देश की हर मुस्लिम महिला को अपनी बहन समझने वाले माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी से कि क्या उनकी हाईटेक पुलिस उनके भांजे नजीब को ढूंढने में विफल साबित हुई है या कुछ लोगों को बचाने के लिए उन्हें विफल होने पर मजबूर कर दिया गया है।
मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि भोपाल से अडंर ट्रायल फरार आतंकियों को 8 घण्टे में पकड़कर मौत के घाट उतार देने वाली जेम्स बॉन्ड टाइप की पुलिस को आखिर हो क्या गया है, क्यों पता नहीं लगा पा रही है नजीब का?
माननीय प्रधानमंत्री मंत्री जी एक बार अपने सारे मंत्रालय के नवाबों से हिन्दू-मुसलमान से ऊपर उठकर एक इंसान को इंसान समझने की हिदायत दे देंगे, तो अच्छा होगा।
अपनों से बिछड़ने का गम बहुत दुखदायी होता है श्रीमान। मैं मानता हूं कि वो पीड़ा कोई आसानी से नहीं समझ सकता, पर हम कोशिश तो कर ही सकते हैं नजीब की अम्मी की तड़प को समझने की।
नजीब को ढूंढने के लिए अगर शासन-प्रशासन कदम उठाये, तो अच्छा होगा। क्योंकि हमारा कदम उठाना देश के अनुशासन के लिए घातक सिद्ध होगा।
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